
गुरु पूर्णिमा पर ज्ञान, श्रद्धा और समर्पण का पर्व है, जो आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।
गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय'
बिहार : जामुई बिहार खैरा मे गौरी शंकर प्रिया ने विशेष रूप से चर्चा करते हुए बताया कि भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान अत्यंत उच्च और पूजनीय माना गया है। ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है प्रकाश। जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाए, वही सच्चा गुरु होता है। गुरु हमें सही दिशा दिखाते हैं, जीवन को सार्थक बनाते हैं। गुरु पूर्णिमा का पर्व गुरु पूर्णिमा का महत्व
पर बिहार के जमुई की साधारण परिवार में जन्मी गौरी शंकर प्रिया ने कहा गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है क्योंकि इसी दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित कर मानवता को ज्ञान का अमूल्य खजाना दिया। यही कारण है कि उन्हें सभी गुरुओं का गुरु माना जाता है।
गुरु का जीवन में स्थान
प्राचीन गुरुकुल प्रणाली से लेकर आज के आधुनिक शिक्षण संस्थानों तक, गुरु का स्थान अपरिवर्तित रहा है। वे न केवल विषय ज्ञान देते हैं बल्कि चरित्र निर्माण, नैतिकता, अनुशासन और आदर्शों का बीजारोपण भी करते हैं। कबीरदास जी ने कहा है:
'गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए॥'
यह दोहा गुरु की महिमा को दर्शाता है, जो ईश्वर का मार्ग दिखाते हैं।
गुरु पूर्णिमा के दिन छात्र और अनुयायी अपने-अपने गुरु के पास जाकर उन्हें श्रद्धा और सम्मान अर्पित करते हैं। मंदिरों, आश्रमों और शिक्षण संस्थानों में विशेष कार्यक्रम, प्रवचन, भजन और पूजा-अर्चना की जाती है। कई लोग इस दिन उपवास रखते हैं और आत्मचिंतन करते हैं। आज के समय में जब शिक्षा व्यवसाय बनती जा रही है, तब गुरु पूर्णिमा जैसे पर्व हमें गुरु-शिष्य परंपरा की पवित्रता और गहराई का स्मरण कराते हैं।
आधुनिक समय में आध्यात्मिक गुरु की भूमिका
आज के समय में भी शिक्षक (गुरु) समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तकनीक के युग में जहां इंटरनेट और मोबाइल ने सूचनाओं की भरमार कर दी है, वहां सही और गलत की पहचान कराने वाला मार्गदर्शक केवल एक गुरु ही हो सकता है। सांसारिक ज्ञान के अलावा गुरु का एक और रूप है - आध्यात्मिक गुरु। यह गुरु शिष्य को आत्मा, परमात्मा, मोक्ष और जीवन के वास्तविक उद्देश्य का ज्ञान कराता है। जैसे – श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का संबंध, संत कबीर और उनके शिष्य रैदास का जुड़ाव। यह दर्शाते हैं कि आध्यात्मिक गुरु शिष्य को लोक और परलोक दोनों में सफल बनाता
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, यह कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन में सफलता केवल किताबों के ज्ञान से नहीं, बल्कि एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन से ही मिलती है। हमें चाहिए कि हम अपने गुरुओं का सम्मान करें, उनके दिखाए मार्ग पर चलें और ज्ञान को जीवन में उतारें। तभी यह पर्व वास्तव में सार्थक होगा।
सनातन धर्म में गुरु और शिष्य की परंपरा आदिकाल से ही चली आ रही है। तभी तो संत करीबदास लिखते है कि " गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाये, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाये"। इस तिथि को आषाढ़ पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा और वेद व्यास जयंती के नाम से भी जाना जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन और आशीर्वाद लेने का विशेष महत्व होता है। वैसे तो हर माह की पूर्णिमा का विशेष महत्व होता है लेकिन आषाढ़ माह की पूर्णिमा गुरु को समर्पित होती है। दिन शिष्य अपने गुरुओं का आभार व्यक्त करते हुए उनका नमन करते हैं। गुरु ही व्यक्ति को अज्ञानता से निकालकर प्रकाश रूपी ज्ञान की तरफ ले जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस तिथि पर महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ है। वेद व्यास जी ने पहली बार इस जगत को चारों वेदों का ज्ञान दिया था। महर्षि वेदव्यास को प्रथम गुरु की उपाधि दी गई हैं। आइए जानते हैं गुरु पूर्णिमा की तिथि, मुहूर्त और महत्व के बारे में।
सनातन धर्म में गुरु और शिष्य की परंपरा आदिकाल से ही चली आ रही है। तभी तो संत करीबदास लिखते है कि " गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाये, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाये"। कबीरदासजी का यह दोहा गुरु के प्रति सम्मान को व्यक्त करते हुए है। 'गुरु बिन ज्ञान न होहि' का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है। माता बालक की प्रथम गुरु होती है,क्योंकि बालक उसी से सर्वप्रथम सीखता है।भगवान् दत्तात्रेय ने अपने चौबीस गुरु बनाए थे। गुरु की महत्ता बनाए रखने के लिए ही भारत में गुरु पूर्णिमा को गुरु पूजन या व्यास पूजन किया जाता है। गुरु मंत्र प्राप्त करने के लिए भी इस दिन को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।आप जिसे भी अपना गुरु बनाते हैं,आज के दिन विशेषरूप से उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है।
सावन के महीने में श्रीमद् भागवत कथा का क्या महत्व है बहुत ही अच्छा होता है
कथा की सार्थकता जब ही सिध्द होती है जब इसे हम अपने जीवन में व्यवहार में धारण कर निरंतर हरि स्मरण करते हुए अपने जीवन को आनंदमय, मंगलमय बनाकर अपना आत्म कल्याण करें। अन्यथा यह कथा केवल ‘ मनोरंजन ‘, कानों के रस तक ही सीमित रह जाएगी । भागवत कथा से मन का शुद्धिकरण होता है। इससे संशय दूर होता है और शंाति व मुक्ति मिलती है। इसलिए सद्गुरु की पहचान कर उनका अनुकरण एवं निरंतर हरि स्मरण,भागवत कथा श्रवण करने की जरूरत है।
श्रीमद भागवत कथा श्रवण से जन्म जन्मांतर के विकार नष्ट होकर प्राणी मात्र का लौकिक व आध्यात्मिक विकास होता है। जहां अन्य युगों में धर्म लाभ एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए कड़े प्रयास करने पड़ते हैं, कलियुग में कथा सुनने मात्र से व्यक्ति भवसागर से पार हो जाता है। सोया हुआ ज्ञान वैराग्य कथा श्रवण से जाग्रत हो जाता है। कथा कल्पवृक्ष के समान है, जिससे सभी इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती है।
भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद् भागवत या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य विषय भक्ति योग है, जिसमें श्रीकृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरूपण भी किया गया है। भगवान की विभिन्न कथाओं का सार श्रीमद्भागवत मोक्ष दायिनी है। इसके श्रवण से परीक्षित को मोक्ष की प्राप्ति हुई और कलियुग में आज भी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिलते हैं।श्रीमदभागवत कथा सुनने से प्राणी को मुक्ति प्राप्त होती है
सत्संग व कथा के माध्यम से मनुष्य भगवान की शरण में पहुंचता है, वरना वह इस संसार में आकर मोहमाया के चक्कर में पड़ जाता है, इसीलिए मनुष्य को समय निकालकर श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए। ब’चों को संस्कारवान बनाकर सत्संग कथा के लिए प्रेरित करें। भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला के दर्शन करने के लिए भगवान शिवजी को गोपी का रूप धारण करना पड़ा। आज हमारे यहां भागवत रूपी रास चलता है, परंतु मनुष्य दर्शन करने को नहीं आते। वास्तव में भगवान की कथा के दर्शन हर किसी को प्राप्त नहीं होते। कलियुग में भागवत साक्षात श्रीहरि का रूप है। पावन हृदय से इसका स्मरण मात्र करने पर करोड़ों पुण्यों का फल प्राप्त हो जाता है।इस कथा को सुनने के लिए देवी देवता भी तरसते हैं और दुर्लभ मानव प्राणी को ही इस कथा का श्रवण लाभ प्राप्त होता है।श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण मात्र से ही प्राणी मात्र का कल्याण संभव है।